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सबकी दीपावली रोशन करने वाले कुम्हारों की दीपावली रह जाती है फीकी

  मिट्टी के दीए से ज्यादा झालरों की ओर है लोगों का रुझान भानुप्रतापपुर। दीपावली पर्व के आते ही सभी को कुम्हारों की याद आ जाती है। यही वह समा...

 


मिट्टी के दीए से ज्यादा झालरों की ओर है लोगों का रुझान

भानुप्रतापपुर। दीपावली पर्व के आते ही सभी को कुम्हारों की याद आ जाती है। यही वह समाज है जो दीप पर्व के पारम्परिक रीति रिवाजों से अब तक हिन्दुओं को जोड़ कर रखे हुए हैं। प्राचीन काल से दीपावली पर्व का महत्व बताते हुए यह कहा गया है कि यह त्यौहार अमावस्या के दिन होता है। रात के अंधकार को दूर करने के लिए ही घरों में मिट्टी के दिये जलाये जाते हैं। लेकिन आज के परिवेश में मिट्टी के दिए की पूछ परख काफी कम हो गयी है और इनकी जगह चायनीज झालर व इलेक्ट्रिक उपकरणों ने ले ली है। जिसके चलते कुम्हार जाति का इस पर्व को लेकर विशेष महत्व भी घटने लगा है। वे सभी धीरे-धीरे अपने पारम्परिक कार्य छोड़कर अन्य कामों में लग गए हैं और जो अब तक इस कार्य से जुड़े हैं उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। ज्ञात हो कि कुम्हार वह जाति है जो मिट्टी के बर्तन व समान आदि बनाने का कार्य करती है। भानुप्रतापपुर विकासखण्ड के कई ऐसे गांव हैं जहां इस समाज के कुछ परिवार निवास करते हैं और उनका मुख्य कार्य कुम्हारी ही है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जिस प्रकार लोगों में मिट्टी के बर्तन व अन्य समानों के प्रति रुझान कम हुआ है उससे इनके सामने रोजी रोटी की विकट समस्या खड़ी हो गयी है। शासन द्वारा इनके लिए चलाई जा रही योजनाओं का लाभ भी सही से नहीं मिल पा रहा है। पुराने कुम्हार जो अब वृद्ध हो चले हैं उनकी आने वाली पीढ़ी अब इस कार्य में रुचि नहीं ले रही है। यह भी इनके लिए चिंता का विषय है। क्योंकि ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन यह समाज पूरी तरह विलुप्त हो जाएगा और मिट्टी के बर्तनों को देखना भी लोगों को नसीब नहीं होगा।
-मेहनत के हिसाब से नहीं मिलता मूल्य
इस संबंध में ग्राम बांसला के राज्य स्तरीय पुरस्कार प्राप्त कुम्हार परमेश्वर चक्रधारी ने बताया कि मिट्टी के बर्तन बनाने में काफी मेहनत लगती है, लेकिन उस मेहनत के हिसाब से मूल्य नहीं मिलता। रोजाना सायकल पर 5 किलोमीटर दूर से मिट्टी लाते हैं और काफी मेहनत करके एक दिया बनता है जिसकी कीमत मात्र 2 रुपये है, उसके बावजूद भी लोग इसे खरीदने में रुचि नहीं दिखाते। समय तो आधुनिक हो चला है लेकिन इससे कुम्हारो की तकदीर नहीं बदली है। जबकि कुम्हारों ने भी समय के साथ कदम मिलाकर आधुनिकता का दामन थामा है। समय के साथ नए डिजाइन के दिये व बर्तन आदि बनाने लगे हैं, लेकिन इनमें काफी मेहनत लगती है और उस हिसाब से बाजार में रिस्पांस नहीं मिलता। बड़े-बड़े माल में जो चिल्लर पैसे छोड़ आते हैं और होटलों में सैकड़ों रुपये टिप देते हैं वे लोग भी दिए के लिए मोलभाव करते नजर आते हैं। दीपावली पर पूरा परिवार दिए बनाने का ही कार्य करता है पर उस हिसाब से बिक्री नहीं होती। सबकी दीवाली रोशन करने वाले कुम्हारों की दीवाली फीकी हो जाती है।
कोरोना से ठप हो गया व्यापार
कराठी निवासी बृजलाल चक्रधारी ने बताया कि कुम्हारी उनका पुश्तैनी कार्य है। वे जब 20 वर्ष के थे तब से इस कार्य में लगे हुए हैं और अब उनकी पत्नी, बेटा व बहू भी इस कार्य में सहयोग करते हैं। इसके अलावा उनके पास और कोई कार्य नहीं है पर मिट्टी के अलावा कभी मांग के अनुसार सीमेंट के भी समान बनाकर बेच देते हैं। इस कार्य में सलाना उनकी 1 लाख तक की आमदनी हो जाती है। पिछले वर्ष से कोरोना महामारी के चलते बाजार की स्थिति काफी खराब है और आमदनी भी घट गई है। गर्मी के समय भी क्षेत्र में लॉक डाउन था। लोगों में कोरोना का इतना भय था कि ठंडा पानी नहीं पी रहे थे जिसके चलते मटकों की बिक्री में काफी कमी आ गयी। पर इस बार दीवाली को देखते हुए दीए कि बिक्री से काफी उम्मीद हैं। पिछले वर्ष दिए की बिक्री उतनी अच्छी नहीं थी पर इस बार उम्मीद है कि 10 हजार से अधिक दिये बिक जाएंगे। कुम्हारों के एक सामान्य दिए कि कीमत 2 रुपये व डिजाइन वाले दीए की कीमत 5 रुपये है, वहीं लक्ष्मी माता की छोटी मूर्ति की कीमत 50 रुपये है।
ऐसे बनते हैं मिट्टी के दिए और बर्तन
बांसला के प्रेमसागर चक्रधारी, संजीत चक्रधारी, कलम सिंह चक्रधारी व मिश्री चक्रधारी आदि ने बताया कि मिट्टी के बर्तन बनाने के पहले अच्छी मिट्टी का चयन करना होता है। बर्तन बनाने के लिए कन्हार मिट्टी का उपयोग होता है जो भूमि में 3 से 4 फिट नीचे पाई जाती है। मिट्टी को चालकर फिर उसे सुखाने के बाद जब वह कड़ा हो जाये तो उसे मसलकर आटे की तरह गुथना है। उससे जो भी सामग्री बनानी है उस आकार में ढालना तथा सूखा कर भट्टी में पकाने पर बर्तन पूरी तरह तैयार हो जाता है।
शासकीय योजनाओं का लाभ दिलाने की मांग
कुम्हारों के लिए कई शासकीय योजनाएं संचालित हैं लेकिन जानकारी के अभाव में उनका लाभ सही से नहीं मिल पा रहा है। वहीं सरकार के द्वारा प्रत्येक गांव में 5 एकड़ जमीन कुम्हारों को आबंटित करने की घोषणा की गई है। लेकिन अब तक भूमि आबंटित नहीं हुई है, जिसके चलते जगह-जगह कुम्हारों को मिट्टी के लिए भटकना पड़ता है। इसके अलावा सरकार से इलेक्ट्रिक भट्टी, बर्तन बनाने का प्रशिक्षण व मिट्टी से बने समानो को बेचने हेतु उचित मूल्य का बाजार दिलाने की भी मांग की गई है।


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