abernews । आज यानी की 17 जनवरी को पूरे प्रदेशभर में लोकपर्व छेरछेरा धूमधाम के साथ मनाया जा रहा है। इस त्यौहार के पीछे लोगों की अलग-अलग मान्य...
abernews । आज यानी की 17 जनवरी को पूरे प्रदेशभर में लोकपर्व छेरछेरा धूमधाम के साथ मनाया जा रहा है। इस त्यौहार के पीछे लोगों की अलग-अलग मान्यताएं हैं। इससे जुड़े रोचक किस्से आज भी गांव में बुजुर्ग बताते हैं। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह पर्व पौष पूर्णिमा के दिन खास तौर पर प्रदेशभर में मनाया जाता है। यह अन्न दान का महापर्व है। छत्तीसगढ़ में यह पर्व नई फसल के खलिहान से घर आ जाने के बाद मनाया जाता है।
आपको बताते चलें कि यह लोक त्यौहार कृषि परंपरा में दान करने की संस्कृति को हमें याद दिलाती है। यह पर्व आदिकाल से वर्तमान समय में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। ‘छेरछेरा’ त्यौहार के दिन छोटे से लेकर बड़े बुजुर्ग तक लोग घर-घर जाकर अन्न दान की मांग करते हैं। इस दिन केवल ‘धान’ की ही दान की जाती है। वहीं कई युवक अपने सुविधानुसार बाजा या डंडा नाच करते हुए घर-घर दस्तक देते हैं। इस दिन शहर के साथ ही पूरे अंचल में बच्चे टोलियां घर-घर जाकर छेरछेरा, माई कोठी के धान ल हेरते हेरा की आवाज लगाते हैं।
यह है कथा
रतनपुर के कवि रेवाराम ने अपनी रचना में उल्लेख किया है कि रतनपुर के राजा कल्याण साय मुगल बादशाह जहांगीर के दरबार में सात वर्ष तक रहे थे। वहां से वापस आए तो अपने राजा को देखने के लिए प्रजा गांव- गांव से रतनपुर पहुंचे थे। वे राजा की एक झलक पाने को व्याकुल थे। इस बीच राजा अपने कामकाज व राजकाज की जानकारी लेने में व्यस्त हो गए जिससे उनका ध्यान अपनी प्रजा से हट गई थी। ऐसे में प्रजा निराश होकर लौटने लगी। तब रानी फुलकइना ने उन्हें रोका और इसके लिए स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा कराई। इसके साथ ही हर साल इस तिथि पर राजमहल आने की भी बात कही। उस दिन पौष पूर्णिमा की तिथि थी। तभी से यह लोकपर्व मनाया जा रहा है। साथ ही धान के दान को वही स्वर्ण मुद्राएं माना जाता है जो रानी फुलकइना ने प्रजा पर बरसाए थे।
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